अरविन्द केजरीवाल केस :तानाशाही या भ्रष्ट तंत्र - दोषी कौन ?

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कई दिनों से सुर्ख़ियों में चल रही खबर कि अरविन्द केजरीवाल जो दिल्ली के मुख्यमंत्री पद पर रहते - रहते प्रवर्तन निदेशालय द्वारा दोषी पाए जाने के आरोपी पाए गए हैं और वर्तमान में बिना रिमांड के जेल से बाहर नहीं आ पा रहे हैं. 'उनके पार्टी के लोगों का बयान के अनुसार कि 'वे अभी भी जेल से ही पार्टी को चलाने का कार्य करते रहेंगे' अटपटा लग रहा है. उनकी तुलना भगवान श्रीराम से कर रहे हैं और उन्हें बिलकुल पाक - साफ़ बताकर चुनावी रंजिश का शिकार बताया जा रहा है.

देश के प्रधानमंत्री को तानाशाह बताने वाली आप पार्टी एकमात्र अकेली पार्टी नहीं है, भाजपा पार्टी के खिलाफ विरोधी पार्टियाँ तब से इस्तेमाल कर रही थीं जब विपक्षी पार्टियाँ भाजपा के खिलाफ एकजुट हो रही थीं. 

अभी मीडिया साफ़ - तौर पर दो मतधारा के बीच बंटा हुआ है. देश की विचारधारा भी दो भागों में बंटी हुई दिख रही है कि सही कौन है गलत कौन.! 

देखिए राजनीति एक ऐसी जगह है जहाँ दूध का धुला कोई नहीं होता. आपका अपना कोई सगा नहीं होता और न ही आप जिनके लिए वाद - विवाद कर रहे हैं उनसे आपको कुछ प्रत्यक्ष रूप से कुछ मिल सकता है (तब तक, जब तक कि आप किसी पार्टी के लिए काम नहीं कर रहे हों - वैसी हालत में भी आप सीधे तौर पर लाभान्वित नहीं हो सकते)

यदि आप समझने की कोशिश करें कि राजनीति इतनी टॉक्सिक क्यों है उसका सीधा जवाब होगा 'पॉवरप्ले'. यदि आपके पास ताकत है तो संसाधन आपके हिस्से आ सकता है.और लोग उन्हीं की चर्चा करना पसंद करते हैं जिनके पास ताकत होती है यानी पूरा देश और देश की राजनीति केवल इस चीज़ को संभालने या गिराने में लगी हुई है कि किससे उन्हें फायदा हो सकता है. उनके राजनीतिक कैरियर के लिए क्या अच्छा है क्या नहीं, और हम यानी आम जनता अपने जनमत तैयार कर रहे हैं बिना इस बात को समझे कि हमें किन चीजों पर फोकस करने की जरुरत है..हमें किसी भी राजनीतिक पार्टी के अतीत को देखने की कोशिश करनी होगी. यह समझने की कोशिश करनी होगी कि हम यह समझ पाएं कि किस पार्टी ने ज्यादा सब्जबाग दिखाएँ हैं और किसने वास्तविक धरातल पर काम करके दिखाया है. 

किस पार्टी ने किस तरह का शार्टकट लेकर जनता को फांसने की कोशिश की और किसने अपने दायरे में रहकर नियमों के दायरे में रहकर अधिकतर लाभ निकालने की कोशिश की है, देखिए मेरा इशारा नियमों का 'लूपहोल' निकालने की ओर नहीं बल्कि 'बिना संसाधनों को नुकसान पंहुचाये बिना भविष्य से समझौता किए बिना जनता की अधिकतम सेवा करने की है'.और खेद के साथ कहना पड़ता है कि राजनीति के दलदल में उतरने वाले अक्सर 'ईमानदार' भी कब 'भ्रष्ट' बन जाते हैं पता नहीं चलता.

२०१२ में बनी आम आदमी पार्टी के मुख्य केजरीवाल जी का भी कुछ ऐसा ही कहना था कि देश के आम लोगों के लिए यह पार्टी ला रहे हैं, ताकि देश का भविष्य सुदृढ़ हो, निष्कलंक हो. इसी विश्वास के साथ लोगों ने इस पार्टी को ज्वाइन किया, उसके प्रशंसक बने. उस वक्त लोग बेईमानी के विरोध में, भ्रष्टाचार के विरोध में जुड़ रहे थे. और आज लोग सिर्फ किसी भीड़ का हिस्सा बनना चाहते हैं ताकि अकेले न पड़ जाए. इसे कहते हैं 'लोकतंत्र की हत्या'. लोकतंत्र की हत्या का ठीकरा केवल कुछ पार्टियों पर नहीं बल्कि उन लोगों पर भी फूटना चाहिए जो सिर्फ किसी भीड़ का हिस्सा बन जाना चाहते हैं ताकि ज्यादा जनमत का हिस्सा बनकर, जीत में शामिल होकर जीत की ख़ुशी हासिल कर सके, बहुमत का हिस्सा बनकर आत्मसंतुष्टि पा सकें भले ही यह कितनी ही खोखली हो. 

हम - आप केवल भीड़ का हिस्सा का हिस्सा बनकर या तो सिर्फ यह प्रचार कर रहे हैं कि 'वह बेईमान आदमी है और उसे सजा मिलनी चाहिए या फिर यह कह रहे हैं कि वह बेकसूर है और उसे राष्ट्रीय स्तर की एजेंसियों द्वारा परेशान किया जा रहा है ताकि एक बड़ा विरोधी, रास्ते का काँटा मैदान से हट जाए. मामला इतना भी छोटा नहीं है कि दिख नहीं सकता और न इतना बड़ा है कि छिप जाएगा.

शराब की मनी लोंड्रिंग का मामला दिख रहा है, E.D. द्वारा पाए गए या जाँच के अंतराल में 'लगे आरोप' पार्टी बदलते ही गायब हो जा रहे हैं यह भी आम आदमी को समझ में आता है. ईमानदार होने का दम भरने वाले लोग ऊपर से नीचे तक सत्तालिप्सा में आकंठ डूबे हैं जनता को यह भी समझ में आता है, इस पार्टी के सत्ता में आनेपर फ्री चीजें या भत्ता की रकम बढ़ जाएगी जनता को अपना फायदा भी समझ में आता है लेकिन जनता को यह क्यों नहीं समझ में आता कि 'फ्री' में जो उन्हें मिल रहा है उसके लिए पैसे कोई और चुका रहा है और आगे से ज्यादा पैसे उसे चुकाने पड़ेंगे. यह की जो दारु की बोतल और प्लेट भरकर मांस - भात या बिरियानी जो वह लेकर बैठा है वह किसी के जबरन चंदे की उगाही का पैसा है. यह कि उसके संसाधन जो किसी और के साथ बांटे जा रहे हैं और भविष्य में वोट बैंक के लिए बांटे जाएंगे उसमें उसी का घाटा है.

वह छात्र जो इस बात से खुश है कि पास करने के लिए मेहनत नहीं करनी, और नौकरी के लिए आश्वासन है उन्हें जमीनी हकीकत कौन बताएगा क्यूंकि हम तो भीड़ जुटाने में लगे हैं.

सोचिए असली दोषी कौन है?


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