खेलेंगे हम होली....

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 आज होली है।

  अहसास सिर्फ आज हुआ ऐसी बात नहीं, दिमाग कई दिनों पहले से ही सजग हो गया था कि होली आ रही है। दुकानों पर पिचकारियाँ लटकने लगी थीं।

कुकुरमुत्ते  की तरह कुछ अस्थायी दुकानें अचानक से पैदा हो गई हैं जिनकी और बरबस निगाह जाते ही दिल में कम्पन सी पैदा होने लगती है। सचमुच होली आ गई, और देखो, आज फिर! समय कितना जल्दी बीत जाता है न? बालू की तरह लाख दबा रखने पर भी मुट्ठी में से थोड़ा - थोड़ा रिसता रहता है और यक ब यक तब पता चलता है जब मुट्ठी खाली हो चुकी होती है।

हाँ जी

एक साल और बीत गया। लाख कोशिश करने पर भी कि कुछ और भी लिखना था, मन की बात बतानी थी लेकिन और नहीं, समय निरंतर रीतता रहता है। होली के पहलेवाले दिन जमाए गुल्लक के पैसे और मां पिताजी से मांगे गए कलेक्शन से होली उत्सव का पूरा खाका खींचने की तैयारी करना, कुछ दिनों पहले से ही आ रही फागुनी बयार को अपने जेहन में खींचते हुए यह अहसास करना बस, अब बहुत ही करीब है कैलेंडर देखना न आता था, न देखने -समझने की ललक ही थी बस यही अहसास था, कि होली तब ही है जब हवा में अबीर की सुगंध मिलने लगे स्कूल में सहपाठियों के साथ योजनाएं बनने लगती कि कैसे, कितना खरीदना है और मन मसोस उठता कि काश 'इस बार वो महंगी वाली' पीतल की पिचकारी मिल जाती तो मज़ा आ जाता हमलोग जत्था बनाकर निकलेंगे वगैरह - वगैरह ...होलिका दहन की तैयारी में सूखे पत्ते , सूखी लकड़ियों के ठंठर और पता नहीं क्या - क्या हमलोग खोज निकालते इस समय हमलोग उस घनी झाड़ी में भी डरते - सहमते घुस जाते जहां 'विषैला सांप ' होने का डर होता लकड़ियां जुटानी है होलिका दहन शानदार होना चाहिए.....जरूरत पड़ी तो केले के अधकच्चे पत्तों को ही पकड़कर लटक जाते थे, टार्गेट पूरा करना है भाई जब एक - एक पत्ता डालते तब होलिका को बनते हुए मंत्रमुग्ध से ताका करते मानों यह अपनी रचना हो होलिका की दोपहरी से ही चंदा पार्टी इकठ्ठा होती घर - घर घूमकर, चिरौरी करके, शानदार होलिका की दुहाई देकर हम चवन्नी, अठन्नी, एकटकिया  जुटाकर अगरबत्ती, नकुलदाना (इलायची दाना) बताशे खरीदते और फिर समय आता सबसे महत्वपूर्ण समय का।

गहराती शाम में हम सब बच्चे होलिका के अगल - बगल इकट्ठे होकर होलिका दहन का प्रचंड रूप देख रहे होते किसी ने आलू, किसी ने टमाटर या बैंगन आग में डाला था उसे खोजने की भरसक कोशिश कर रहा होता फिर आती प्रसाद वितरण की बारी।

आज, उन दिनों की सोचता हूं तो लगता है कि उस वक्त एक बताशा भी मन को तृप्त कर देने की क्षमता रखता था बचपन का आनंद ही कुछ और होता था।

अगले सुबह तैयारी की कल्पना करके मन कुछ ऐसा आनंदित हो जाता था कि निंदिया रानी भी जल्दी अपनी बांहों में ले न पाती थी।

सुबह का हो - हल्ला सुनकर समझ में आता था कि टोलियां निकल पड़ी हैंखाने की किसको पड़ी हैपुराने कपड़ों का कलेक्शन निकाला जाता और हर एक पुराना कपड़ा नया लगता मन में बैचेनी होती अरे लोग निकले जाते हैं, रंग बेकार धरा रह जाएगा कुएं वाले आंगन में रंगों के छींटे बिछने लगतीं हम बैलून भरकर, आलू काटकर, छपिया बनाकर निकल पड़ते। चमड़े या त्वचा की चिंता नहीं थी कि चमड़ी खराब हो जाएगीहां, थोड़े बड़े हुए तब टोली में निकलने से पहले सरसों या नारियल तेल की मोटी परत चढ़ाकर निकला करते।जैसे जैसे बड़े होते गए होली के रंग अपने लिए बदलते गए लेकिन आज भी जब अबीर  या गुलाल के ढेर में अंगुलियाँ डूबती हैं बड़ा प्यारा सा लगता है, एक पुराना अहसास जगता है बच्चों को होली खेलते देखता हूं तो ऐसा लगता है मानो छोटे - छोटे फूल रंगों की बौछार से खेल रहे हों - उनमें अठखेलियां कर रहे हों।

आज के अभिभावक अपने बच्चों को शायद उतना खुलकर होली न खेलने दें। स्वाभाविक है, बच्चों की मॉनिटरिंग तो करनी पड़ती ही है लेकिन हो सके तो हमारी यह आप - बीती उन तक भी जरूर पहुंचाइएगामोबाइल, इंटरनेट से भी बाहर एक ऐसी दुनिया है जो उन्हें शुद्ध आनंद देती है क्या पता यह अहसास उन्हें भी हो जाए।


सभी को होली की ढेर सारी बधाइयांखूब होली खेलिए, नाचिए।

गाइए -

आज तो खेलेंगे..बस हमजोली

खेलेंगे हम होली...